‘परितः आवरणम्’ अर्थात् हमारे चारों ओर विद्यमान वह घेरा या वातावरण जिसका हम प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अनिवार्यत: उपभोग करते है, उसे पर्यावरण कहते हैं। भारतीय ज्ञान परंपरा और वांगमय में पर्यावरणीय चिंतन का निर्विवाद रूप से एक विशिष्ट स्थान रहा है। यह चिंतन किसी काल विशेष तक सीमित नहीं रहा अपितु परंपरागत ढंग से तत्कालीन मनीषियों, द्रष्टाओं और साहित्यसर्जकों द्वारा उनके ग्रंथ विशेष में शब्दाकार ले पर्यावरणीय प्रेम की सुमधुर गीत बना। मानवीय इतिहास के प्राचीनतम प्राप्य ग्रंथ वेद में पर्यावरणीय चिंतन की जो गहनता और सूक्ष्मता दृष्टिगोचर होता है, वह इस बात की परिचायक है कि हमारी पर्यावरणीय चेतना, संवेदना और प्रेम की जड़े कितनी गहरी और पुरानी हैं। अथर्ववेद का निम्न श्लोक द्रष्टव्य है जिसमें धरती और बादल की तुलना क्रमशः माता-पिता से गई है –
माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः पर्जन्यः पिता । स उ न: पिपर्तु :।। (अथर्ववेद 20.12) मानव जाति अपने भरण-पोषण हेतु कृषि आदि कर्म कर खाद्यान्न उपजाता है। इस हेतु उसे भूमि को कुरेदना और जोतना पड़ता है। भूमि के इस वशात् उत्खनन के लिए क्षमा-याचना करते हुए अथर्ववेद में कहा गया है:-
यत्ते भूमि विखनाभि क्षिप्रं तदपि रोहतु । मा ते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पिपम् ।।
अर्थात् हे भूमि! तेरे जिस भाग को मैं खोदूँ शीघ्र ही भर जाए। मैंने न तुम्हारे मर्मस्थलों को ठेस पहुँचाया है और न ही तुम्हारे हृदय को ठेस पहुँचाया है। भूमि का ऐसा मानवीकरण और उसके प्रति ऐसी सूक्ष्म संवेदना अन्यत्र दुष्प्राप्य है। इस संदर्भ में एक और श्लोक द्रष्टव्य है जिसमें वृक्षारोपण की महत्ता और उसके लाभ को स्पष्टतः चित्रित किया गया है :-
दस कूप समा वापी, दस वापी समो हदः ।
दस हद सम: पुत्रो, दस पुत्र रामो द्रुमः ।
अर्थात् वस्तुत: दस गुणी पुत्रों के समतुल्य लाभकारी एक अकेला वृक्ष है।भारतीय ज्ञान परंपरा की यह विशिष्टता रही है कि वह समय के साथ और अधिक पुष्ट और प्रखर बनी है।पर्यावरणीय चेतना और चिंतन में भी यही शैली दृष्टिगोचर होती है। वैदिक साहित्य से जब हम लौकिक साहित्य की ओर रुख करते हैं तो वहाँ प्रकृति-प्रेम के चरमोत्कर्ष का सहज दर्शन किया जा सकता है। लौकिक साहित्य में भी कविकुलचूडामणि कालिदास के की रचनाएँ प्राकृतिक और पर्यावरणीय विवेचना की दृष्टि से काफी महत्त्वपूर्ण है। कालिदास के कृतियों में तो पुष्पों की सुरभियों का सौरभज्ञान किया सकता है, नदियों की कल-कल ध्वनि को सुना जा सकता है, लताओं और वृक्षों की संवेदना को महसूस किया जा सकता है, हिरणों की मूक ध्वनि में निहित हर्ष और विह्वलता का ठीक-ठीक आकलन किया जा सकता है, तपस्वी में भी प्रेम की मंदाकिनी का सहज प्रवाह देखा जा सकता आदि।पतिगृह को प्रस्थान करती शकुंतला के वियोग में पूरी सम्पूर्ण वृक्ष, लताएँ, मयूर, मृग, आदि किस प्रकार शोकसागर में निमग्न हो गए हैं वह द्रष्टव्य है :-
उद्गलितदर्भकवला मृग्यः परित्यक्तवर्तना मयूराः । अपसृतपाण्डुपत्रा मुञ्चन्नयश्रूणीव लताः ॥
अर्थात् हिरणों ने शोक में अपने मुख से कुश के ग्रासों को उगल दिया है,मोरों ने नाचना छोड़ दिया है। पीले पत्ते गिराती हुई लताएँ मानो आँसू बहा रही हैं। प्रकृति- मनुष्य प्रेम का यह अनुपम परिदृश्य भारतीय पर्यावरणीय चिंतन और चेतना का अद्भुत उदाहरण है। ऐसा नहीं है कि प्रकृति और पर्यावरण प्रेम केवल संस्कृत में ही उद्भूत हुए।अन्य भाषायी काव्यसर्जकों ने भी प्रकृति-प्रेम को अपने-अपने स्वर में मुखरित किया। कालांतर में चौदहवीं शताब्दी में मैथिल कोकिल विद्यापति वसंत ऋतु के आविर्भाव पर लिखते हैं:-
आएल ऋतुपति-राज वसंत। धाओल अलिकुल माधुवि-पंथ।
दिनकर – किरन भेल पौगंड। केसर कुसुम धरत हेमदंड ॥
अर्थात् ऋतुराज बसंत के आगमन पर भंवरें अब कुसुमपथ का रुख कर रहे हैं, सूर्य की किरणें किशोरावस्था को प्राप्त कर गई हैं ..आदि।ब्रज भाषा के मार्तंड महाकवि सूरदास वृंदावन के शरद ऋतु की छटा का वर्णन करते हुए लिखते हैं-
सरद-निशि देखि हरि हरष पायौ ।
बिपिन बृन्दा रमन, सुभग फूले सुमन..।
शरद ऋतु में वृंदावन की छटा अनुपम हो जाती है। सुमन- समूह विकसित हो जाते हैं, वृक्ष फलों से लद जाते हैं, यमुना – पुलिन परम रमणीय हो उठते हैं, और त्रिविध समीर बहने के कारण आनंद ही आनंद छा जाता है। बांग्ला भाषा में बंकिम चन्द्र चटर्जी और रवींद्रनाथ टैगोर ने पर्यावरणीय चेतना को संपुष्ट किया। आनंद मठ और गीतांजलि में गहरी प्राकृतिक चेतना दृष्टिगोचर होती है। ऐसा नहीं है कि हमारा प्रकृति प्रेम केवल उपदेशात्मक या दिखावटी है, जब-जब अवसर आया तब-तब हम पर्यावरण- संरक्षण के लिए प्राणाहुति देने से भी पीछे नहीं हटे। सन् 1730 में अमृता देवी बिश्नोई सहित 363 आबालवृद्ध लोगों ने खेजरी वृक्ष को बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। यह घटना संपूर्ण विश्व के लिए पर्यावरणीय संरक्षण और प्रेम की अपूर्व मिसाल बनीं। इसी घटना से प्रेरित हो, सन् 1973 में सुंदरलाल बहुगुणा के नेतृत्व में चिपको आंदोलन की शुरुआत हुई। चिपको आंदोलन के फलस्वरूप तत्कालीन प्रधानमंत्री द्वारा हिमालयी क्षेत्र में वृक्ष की कटाई पर 15 वर्ष तक की रोक लगा दी गई और वन संरक्षण अधिनियम, 1980 को पारित किया गया। केरल के 1978 का साइलेंट वेली आंदोलन, कर्नाटक का 1983 का अप्पिको आंदोलन, 1985 का गुजरात, मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में फैले नर्मदा बचाओ आंदोलन, आदि इस तथ्य को प्रमाणित करते हैं कि जब-जब प्रकृति और पर्यावरण की संपदा पर विपदा आई हम तब- तब उसके संपदा की अक्षुण्णता, उसके श्रृंगार की विपुलता और उसके अस्तित्व के सातत्य को बनाए रखने के लिए उठ खड़े हुए।परंतु आज बड़े विडंबना के साथ कहना पड़ रहा है कि कहीं न कहीं हमारा प्रकृति-प्रेम दैनंदिन क्षीण होते जा रहा है। यूटिलिटी बिड्डर के हालिया रिपोर्ट के अनुसार वन की कटाई के मामले में भारत समूचे विश्व में दूसरे स्थान पर है।इस रिपोर्ट के अनुसार भारत ने पिछले 30 वर्षों में लगभग 6,68,400 हेक्टेयर वन क्षेत्र खो दिया। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के 2022 के रिपोर्ट के अनुसार 46 नदियां P1 श्रेणी में हैं। P1 श्रेणी में आने वाली नदियां ऐसी नदियां होती हैं जिन पर अगर त्वरित यथोचित निर्णय न ली गईं तो शीघ्र ही ये अपना अस्तित्व खो देंगी।इन नदियों का बी.ओ.डी.अर्थात् बायो-केमिकल आक्सीजन डिमांड प्रायः 30mg/L से अधिक होता है।आई क्यू एयर(IQAir) द्वारा जारी 5वीं वार्षिक विश्व वायु गुणवत्ता रिपोर्ट में सबसे खराब बायु गुणवत्ता सूचकांक वाले देशों की सूची में भारत 8वें स्थान पर है। रिपोर्ट बताती है कि भारत के लगभग 60 प्रतिशत शहरों का वार्षिक PM 2.5 का स्तर WHO के मानक स्तर से लगभग सात गुणा अधिक है।
ये सब स्थितियां बेहद भयावह हैं।इस स्थिति की भयावहता को कम करने के लिए सरकार ने समुचित कदम भी उठाएँ हैं जिनमें से निम्न उल्लेखनीय हैं :- (i) पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा 2021 में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु योजना चलाई गई जिसके तहत वायु प्रदूषण को वर्ष 2024 तक 20-30 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य बनाया गया।
(ii) पर्यावरण के लिए जीवन शैली (LiFE- Lifestyle for Environment) की अवधारणा को भारत के प्रधानमंत्री द्वारा 1 नवंबर 2021 को ग्लासगो में COP26 में पेश किया गया। LiFE सिद्धांत प्रत्येक व्यक्ति पर ऐसा जीवन जीने का व्यक्तिगत और सामूहिक कर्तव्य डालता है जो पृथ्वी के अनुरूप हो और उसे नुकसान न पहुँचाए।
(iii) सरकार द्वारा सर्कुलर इकोनॉमी को अधिकाधिक प्रमोट किया जा रहा है जिसके तहत आर्थिक विकास के साथ-साथ पर्यावरणीय स्थिरता को भी बरकरार रखने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं। सर्कुलर इकोनॉमी का तात्पर्य मोटे तौर पर एक ऐसे बिजनेस मॉडल से है जो मेक – यूज- रिटर्न के सिद्धांत पर काम करती है।
(iv) भारत ने हाल ही में एशिया का सबसे वृहत्तम रामसर साइट नेटवर्क स्थापित किया है। रामसर क्षेत्र जैविक विविधता के संरक्षण में अहम भूमिका निभाती है। भारत में कुल 75 रामसर साईट हैं।
(v) भारत के G-20 नेतृत्व के प्रमुख घोषणाओं में से एक है – “सतत भविष्य के लिए हरित विकास समझौता” (Green Development Pact for a Sustainable Future)।यह भारत के वैश्विक पर्यावरणीय अस्थिरता के प्रति संवेदनशीलता और ‘एक पृथ्वी और एक भविष्य’ के कथन को मूर्तिमान रूप देती नज़र आती है।
इन सकारात्मक कदमों से यह साफ – साफ परिलक्षित होता है कि हम बदलाव के पक्षधर हैं, प्रगति के हिमायती हैं।पर इस बात को भी नकारा नहीं जा सकता कि हमारी प्रगति की गति थोड़ी मंद है, सुस्त है।
-Shubham Anand